मनुष्य एक मशीन है अथवा एक निजि व्यक्तित्व। मनुष्य का अस्तित्व जानने के लिए इस प्रश्न का उत्तर दँंढ़ना आवययक है। इस प्रश्न के उत्तर की खोज में में इतने ही आधारभूत एवं महत्त्वपूर्ण विचार से प्रारम्भ करता हूँ। मेरा मूलत: यह मानना है कि मनुष्य प्रकृति का हिस्सा है। 


Nature
यह विचार अत्यन्त सरल एवं गाा प्रतीत होता है क्योंकि सभी लोग चाहे वे बाइबिल पढ़ने वाले हों या उस सिद्धान्त को मानने वाले हो जिसके अनुसार ईश्वर के विषय में न कुछ जाना गया है व न जाना जा सकता है या फिर सामान्य व्यक्ति हों या फिर वो जो शिक्षित हैं जैसे कि वह व्यक्ति जो शोध या अन्य किसी जानकारी के लिए संग्रहालय जाता है इस बात को कि मनुष्य प्रकृति का हिस्सा है इस बात को मानते हैं। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में यह बात कि मनुष्य प्रकृति का हिस्सा है उतनी हो स्वप्रमाणिता

माली जाती थी जितना यह विश्वास करना कि पत्थर, कैक्टस एवं कैट का अस्तित्व है। यह कहना कितना आसान है कि पशु, परस्पति एवं धातु सारे ब्रह्माण्ड को अपने अंदर समाहित किए हुए है यह सरल-सा विचार काफी है इस शताब्दी में पश्चिमी देश सिया के आत्यविश्वास को भिन्न-भिन्न करने के लिए।

Human

यह कहना कि मनुष्य प्रकृति का हिस्सा है, इस बात को झूठा साबित कर देता है कि वह अनोखा है। यह आरोप हमें पीड़ित करता है परन्तु हम चुप रहते हैं। इस विचार को धर्म-विरोधी माना गया तथा 1600 में लोगों को इसके लिए पीड़ित भी किया गया। योडना बनों पर दबाव डाला गया कि वह अपने इस विश्वास को छोड़ दे जिसके अनुसार यह पृथ्वी जिस पर हम खड़े हैं वह ही अकेली दुनिया नहीं है अपितु बहुत सारे संसार हैं और मनुष्य ही इन का एकमात्र विशिष्ट जोव नहीं हैं । यह नवचेतना या पुनर्जागरण का काल था जिसमें मनुष्य को न तो भाग्य-विधाता और न ही अपने भाग्य का दास माना गया अपितु प्रकृति एवं मनुष्य दोनों को स्वतंत्र समझा गया, जहाँ मनुष्य असीमित प्रकृति में स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकता है। परन्तु यह नवचेतना भी ईच्यांलु मनुष्य के इस विश्वास को नहीं हिला पाई कि वह अमर है। मनुष्य आज भी यह महसूस करना चाहता है कि वह जन्म से ही अनोखा और आलौकिक है तथा जीवन से महान् है या कम से कम प्रकृति से ज्यादा महत्वपूर्ण है।