ऐसा क्यों होता है कि जब जीवन में सबकुछ  ठीक नहीं होता, तब भी हम कहते हैं कि सब बढ़िया है। साइकोथैरेपिस्ट और विख्यात लेखिका एमी मॉरिन लिखती हैं कि समाज में सकारात्मक बने रहना का बहुत दबाव है। किसी परेशानी के बारे में आप कैसा महसूस कर रहे हैं, उस पर बात करना, शिकायत करना नहीं है। मनोविशेषज्ञ डॉ. डॉन मीशेनबॉम मानसिक आघात और तनाव पर अध्ययन करते हैं। उनका शोध बताता है कि आघात से गुजरने वाले 75 फीसदी लोगों की बाद में पर्सनल ग्रोथ अच्छी होती है। वह कहते हैं कि सवाल ये नहीं कि आपको कोई आघात पहुंचा या नहीं। सवाल है कि उसके बाद और उसके साथ आपने क्या किया। डॉ. डॉन कहते हैं कि सबसे अच्छा उपाय है दूसरों के साथ अपनी बात साझा करें। जब किसी को लगता है कि उसकी बात सुनी गई है और वे अकेले नहीं है, तब इससे लोगों को चिंता और तनाव से निकलने में मदद मिलती है।  सायकोलॉजी टुडे में प्रकाशित अपने एक लेख में पत्रकार बैंकी डायमंड बताती हैं कि 2011 से उन्होंने गृहयुद्ध, माइग्रेशन, सूखा जैसी स्थितियों को सामना करने वाले इलाकों की यात्रा की। दक्षिणी सूडान से लेकर अरब तक गईं। 

जिन महिलाओं का अपहरण हुआ,  ज्यादतियां हुईं, उनसे बात की। बैकी बताती हैं। कि जब भी मैंने लोगों से पूछा कि क्या आप अपने अनुभवों के बारे में बात करना चाहती हैं? तब किसी ने भी ना नहीं कहा। बैकी के अनुसार यही कारण है कि महिलाएं ट्रॉमा से बाहर आ पाईं। मनोविशेषज्ञ इसे अफेक्ट लेबलिंग' कहते हैं। इसके हिसाब से जब लोग अपनी भावनाओं को शब्द देते हैं, तो वे बेहतर तरीके से अपने मूड को नियंत्रित रख पाते हैं। लेबलिंग...यानी जो भी इमोशन उमड़ रहे हैं, उन्हें कोई नाम दिया जाए। सबसे पहले आप स्थितियों को पहचानिए। उनका मूल्यांकन कीजिए। पुरानी स्थितियों से उनकी तुलना कीजिए। अध्ययन कहते हैं कि अपनी भावनाओं को नियमित रूप से एक अर्थपूर्ण शब्द देना (लेबलिंग करना) आपके स्वास्थ्य के लिए अच्छा होता है।

Source- Danik Bhaskar